कविता संग्रह >> अँजुरी भर स्पन्दन अँजुरी भर स्पन्दनविष्णुकान्त मिश्र
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प्रणय मूल्य था कठिन बहुत, पर चाहा मैंने मूल्य चुकाना
कविता मानवता की उच्चतम अनुभूति की सरस अभिव्यक्ति है। इस कसौटी पर प्रस्तुत संकलन की अधिकांश कविताएं खरी उतरती हैं। इनमें उन लोगों के लिए सहानुभूति के अप्रतिम स्वर हैं जो घोर अभावों में जी रहे हैं। साथ ही उस व्यवस्था पर गहरा आक्रोश भी है जो उनकी इस दुरवस्था के लिए उत्तरदायी है। श्रम तथा श्रमजीवी का अभिनन्दन तो सर्वत्र है।
सामाजिक विसंगतियों से कवि क्षुब्ध है। राजनीति की पतनोन्मुखता ने उसे विचलित कर दिया है। अर्थ जो कभी जीवन-यापन का साधन था, आज साध्य बन गया है, इसीलिए भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। धर्माचरण अतीत की वस्तु बनता जा रहा है। उसका स्थान पापाचरण ने ले लिया है। श्रेष्ठ जीवन मूल्यों का अस्तित्व ही जैसे खतरे में पड़ता जा रहा है - ये सारे विषय ऐसे हैं, जो कवि की संवेदना के सूक्ष्म तारों को झंकृत करते हैं। जो सुन्दर हैं, जो श्रेष्ठ हैं, जो उदात्त हैं, जिनमें लोक कल्याणकारी गुण हैं, वे सब विषय कवि की काव्य चेतना को आन्दोलित करते हैं। कवि का यही धर्म है, जिसका निष्ठापूर्वक निर्वहन विष्णुकान्त ने किया है।
यह काव्य कृति निम्न पाँच खण्डों में विभक्त है-
आवाहन
दर्शन
भारत माँ
विविधा
समर्पण
अन्तिम खण्ड समर्पण की एक रचना-
जब भी चिन्तन के गर्भ से
शब्दों का....
‘‘वेदना प्रस्फुरण’’
होता था संवाहित
शब्दों के प्रवाह में/
किसी रचना का उद्गम
होता था....
तब/
तुम होती थीं
प्रथम श्रोता या
कि प्रथम पाठक/
उन्हीं रचना बिम्बों का समेकित
ग्रन्थ
तुम्हें ढूँढ़ रहा है-
तुम्हारे हाथों में जाने को/
यह वही है जिसमें
बहुत बार किये हैं संशोधन/
हुये हैं बहुत बार
तुम्हारी असहमति के
मूल्यांकन/
या कि मौलिक विचारों के/
जनमे परिवर्द्धन अपनाये हैं/
इस ग्रन्थ में समाए हैं/
तुम्हारे उद्बोधन/
तुम्हारे सम्मोहन/
तुम्हारा संकल्प/
तुम्हारा मकरन्द/
तुम्हारी वांच्छना/
और समाया है हमारा अपना अतीत/
हमारे कल का संगीत/
हमारे दोनों के सरगम का साज/
जिसके बिना सूना-
एकाकी-
रीता सा-
अवशेष है
केवल बस केवल
उदासीन-
‘‘हमारा अधूरा आज’’
अधूरा आज।
सामाजिक विसंगतियों से कवि क्षुब्ध है। राजनीति की पतनोन्मुखता ने उसे विचलित कर दिया है। अर्थ जो कभी जीवन-यापन का साधन था, आज साध्य बन गया है, इसीलिए भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। धर्माचरण अतीत की वस्तु बनता जा रहा है। उसका स्थान पापाचरण ने ले लिया है। श्रेष्ठ जीवन मूल्यों का अस्तित्व ही जैसे खतरे में पड़ता जा रहा है - ये सारे विषय ऐसे हैं, जो कवि की संवेदना के सूक्ष्म तारों को झंकृत करते हैं। जो सुन्दर हैं, जो श्रेष्ठ हैं, जो उदात्त हैं, जिनमें लोक कल्याणकारी गुण हैं, वे सब विषय कवि की काव्य चेतना को आन्दोलित करते हैं। कवि का यही धर्म है, जिसका निष्ठापूर्वक निर्वहन विष्णुकान्त ने किया है।
यह काव्य कृति निम्न पाँच खण्डों में विभक्त है-
आवाहन
दर्शन
भारत माँ
विविधा
समर्पण
अन्तिम खण्ड समर्पण की एक रचना-
जब भी चिन्तन के गर्भ से
शब्दों का....
‘‘वेदना प्रस्फुरण’’
होता था संवाहित
शब्दों के प्रवाह में/
किसी रचना का उद्गम
होता था....
तब/
तुम होती थीं
प्रथम श्रोता या
कि प्रथम पाठक/
उन्हीं रचना बिम्बों का समेकित
ग्रन्थ
तुम्हें ढूँढ़ रहा है-
तुम्हारे हाथों में जाने को/
यह वही है जिसमें
बहुत बार किये हैं संशोधन/
हुये हैं बहुत बार
तुम्हारी असहमति के
मूल्यांकन/
या कि मौलिक विचारों के/
जनमे परिवर्द्धन अपनाये हैं/
इस ग्रन्थ में समाए हैं/
तुम्हारे उद्बोधन/
तुम्हारे सम्मोहन/
तुम्हारा संकल्प/
तुम्हारा मकरन्द/
तुम्हारी वांच्छना/
और समाया है हमारा अपना अतीत/
हमारे कल का संगीत/
हमारे दोनों के सरगम का साज/
जिसके बिना सूना-
एकाकी-
रीता सा-
अवशेष है
केवल बस केवल
उदासीन-
‘‘हमारा अधूरा आज’’
अधूरा आज।
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